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देखने से पहले पढ़ लें 'मैडम चीफ मिनिस्टर' का रिव्यू

तमाम विवादों के बीच निर्देशक सुभाष कपूर की फिल्म मैडम चीफ मिनिस्टर कोरोना काल में आज थिएटर में रिलीज हुई है। माना जा रहा है कि फिल्म में रिचा चड्ढा का रोल बसपा नेता मायावती से मिलता-जुलता है। हालांकि फिल्म की शुरुआत में ही एक बड़ा-सा डिसक्लेमर दिया गया है कि फिल्म की कहानी, घटनाएं और पात्र काल्पनिक हैं। इसमें कोई शक नहीं कि पॉलिटिकल जर्नलिस्ट रहे सुभाष कपूर दलित महिला लीडर के निजी और राजनैतिक जीवन की विषमताओं, विडंबनाओं और ऐश्वर्य को दर्शाने में कामयाब रहे हैं। उनके सधे हुए निर्देशन में रिचा चड्ढा का लाजवाब अभिनय ने 'सोने पर सुहागा' वाला काम करता है। कहानी की शुरुआत होती है उत्तर प्रदेश के 1982 के उस दौर से जहां दलित दूल्हे की बारात में ठाकुरों का परिवार महज इसलिए गोलीबारी कर देता है, क्योंकि उस दलित ने ठाकुरों की मौजूदगी में गाजे-बाजे के साथ घोड़ी पर चढ़ने का ऐसा दुस्साहस किया था, जिसका सर्वाधिकार ठाकुर अपने लिए मानते हैं। गोलीबारी में बीच-बचाव करते हुए रूप राम मारा जाता है। उसी वक्त उसके घर एक बेटी पैदा होती है। बेटी की मां अपनी सास से मिन्नतें करती है कि वो उसकी इस बच्ची को पिछली बेटियों की तरह जहर चटाकर न मारे। फिल्म का दूसरा सीन 2005 का है, जहां वह बच्ची तारा (रिचा चड्ढा) बेबाक, बिंदास, निडर और पढ़ी-लिखी टॉम बॉयश लड़की के रूप में जवान हो चुकी है। वह ऊंची जाति के युवा नेता इंदू त्रिपाठी (अक्षय ओबेरॉय) से प्रेम करती है। वह इंदू से शादी के सपने देखती है, मगर तभी उसकी जिंदगी में भूचाल आ जाता है। जाना-माना दलित नेता मास्टरजी (सौरभ शुक्ला) उसे तूफान से बचाकर अपनी पॉलिटिकल पार्टी में शामिल कर लेता है। उसके बाद तारा के एक आम लड़की से उत्तर प्रदेश की सीएम बनने तक का सफर शुरू होता है। इस सफर में जाति वाद, विश्वाघात, षडयंत्रों से भरा राजनीति का घिनौना चेहरा सामने आता है। निर्देशक सुभाष कपूर का निर्देशन कसा हुआ है। वे चरित्रों को कहानी और विषय के अनुरूप गढ़ने में सफल रहे हैं। फिल्म का स्क्रीनप्ले परिवेश को मजबूती प्रदान करता है। वे अपनी कहानी में वे लिंग भेद, जातिवाद, सत्ता की भूख जैसे कई मुद्दों को उजागर करते हैं। मध्यांतर तक फिल्म परत दर परत थ्रिलर अंदाज में चौंकाती है, मगर सेकंड हाफ में कहानी थोड़ी कमजोर पड़ जाती है। सेकंड हाफ में राजनितिक दांव-पेंच के बजाय तारा के व्यक्तिगत जीवन पर फोकस किया गया है। क्लाइमैक्स दमदार है। फिल्म के संवाद चुटीले हैं। 'यूपी में जो मेट्रो बनाता है, वो हारता है और जो मंदिर बनाता है वो जीतता है।', 'मैं कुंवारी हूं, तेज कटारी हूं लेकिन तुम्हारी हूं' जैसे कई डायलॉग्ज याद रह जाते हैं। जयेश नायर की सिनेमटोग्राफी कहानी को विश्वसनीय बनाती है। बैकग्राउंड म्यूजिक दमदार है। शुक्र है फिल्म में बेवजह के गाने नहीं ठूंसें गए हैं। मंगेश धाकड़े के संगीत में स्वानंद किरकिरे का गाया हुआ गाना, 'चिड़ी चिड़ी' कहानी के अनुरूप है। इस क्रूर राजनैतिक ड्रामा को दर्शनीय बनाता है रिचा चड्ढा का दमदार अभिनय। अगर यह कहा जाए कि यह रिचा के करियर का बेस्ट परफॉर्मेंस है, तो गलत न होगा। फिल्म की शुरुआत में उनके बॉय कट बालों वाला लुक थोड़ी उलझन पैदा करता है, मगर कुछ ही मिनटों में वे किरदार में इस तरह से घुलमिल जाती हैं कि दर्शक उस लुक को भूलकर उनकी कन्सिस्टेंस परफॉर्मेंस में डूब जाता है। प्यार में अपर कास्ट लड़के से धोखा खाई दलित लड़की का सीएम के रूप में ट्रांसफॉर्मेशन गजब का है। रिचा ही नहीं तमाम कलाकरों का अभिनय फिल्म का सशक्त पहलू हैं। मास्टरजी के रूप में सौरभ शुक्ला दिल जीत लेते है। इनके और रिचा के बीच के दृश्य फिल्म के हाइलाइट बन पड़े हैं। इंदू त्रिपाठी के रूप में अक्षय ओबेरॉय और दानिश खान के रोल में मानव कौल ने सशक्त उपस्थिति दर्शाई है। सत्ता लोलुप नेता के किरदार में सुब्रज्योति जमे हैं। सहयोगी कास्ट परफेक्ट हैं। क्यों देखें -पॉलिटिकल ड्रामा के शौकीन और कलाकारों के दमदार परफॉर्मेंस के लिए फिल्म देखी जा सकती है।


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